यह क्या तमाशा है क्यों होंश खोने लगे हैं ,
मुड कर ज़रा शरीफों की शराफत तो देखिये
मुहब्बत छोड़ नफरत के बीज बोने लगे हैं,
यहाँ तक घर कर गयी है दिलों में नफरत
साया तक छू जाये तो जिस्म धोने लगे हैं,
औपचारिकताओं की भी हद है आखिर
खतों के मजमून भी अब तार से होने लगे हैं,
किसको समय है किसी का साथ देने का
यह रिश्ते भी अब बुलबुले से होने लगे हैं,
कहने को हैं वचन अब भी सात जन्मों के
क्या इन्हें निभाने में भी इतनी ही जन्म लगेंगे,
रुको मुहब्बत को यूँ रुसवा ना करो
खो दोगे किसी को तो फिर क्या करते फिरोगे,
ढूंढ लो ख़ुशी हर पल में यारों
यूँ ग़म को गले लगाकर कब तक भटकते रहोगे
यूँ ग़म को गले लगाकर कब तक भटकते रहोगे . .
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